ज्योतिष सेवा सदन "झा शास्त्री "{मेरठ उत्तर प्रदेश }

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शुक्रवार, 29 जून 2012

"कालसर्पयोग की प्राचीनता जानते हैं ?"

"कालसर्पयोग की प्राचीनता जानते हैं ?"
---महर्षि पराशर ने "कालसर्पयोग "की चर्चा करते हुए कहा है कि सूर्य ,शनि व मंगल ये तीनो केंद्र स्थानों में हों और शुभग्रह केन्द्रस्थान से भिन्न स्थानों में हों तो "कालसर्पयोग "की सृष्टि होती है ।
--जैसे -केंद्र त्रैगतेह सौम्ये पार्पैवा दल सन्ग्य्कौ ।
  क्रमान्या भुजन्गख्यौ शुभाशुभ फलप्रदौ ।।
-----भाव -ब्रेहत्परासर के अनुसार "कालसर्पयोग "में जन्मे जातक -कुटिल ,क्रूर ,निर्धन ,दुखी ,दीन व पराये अन्न पर निर्भर रहने वाला होता है ।।
---महर्षि बादरायण ,भगवान गर्ग ,मनित्थ के अनुसार ----
              ब्रेहद्जातक नाभसंयोग अध्याय -  बारह - पृष्ट एक सौ अरतालीस पर इस योग को वराहमिहिर द्वारा भी अपने ग्रंथों में उदघृत किया है । ईसा की आठवीं शताब्दि में स्वप्नामधन्य आचार्य कल्याण वर्मा ने "कालसर्पयोग "की परिभाषा में संशोधन किया ।उन्हौने सारावली के अध्याय- एकादश -पृष्ट एक सौ चौवन में स्पष्ट किया है कि सर्प की स्थिति पूर्ण वृत्त न होकर वक्र ही रहती है ।
-----अतः तीन केन्द्रों तक में सीमित "कालसर्पयोग "की व्याख्या उचित प्रतीत होती है ।चारों केन्द्र ,किंवा केन्द्र व त्रिकोणों से वेष्टित पापग्रह की उपस्थिति भी "सर्पयोग" की सृष्टि करती है ।
-------जातक तत्वम ,जातकदीपक,ज्योतिषरत्नाकर,जैन ज्योतिष के अनेक प्राचीन ग्रंथों में "कालसर्पयोग "के अनेक दृष्टान्त मिलते हैं ।
----प्रेषक -भवदीय पंडित कन्हैयालाल "झा शास्त्री "
      किशनपुरी धर्मशाला देहली गेट {मेरठ -उत्तर प्रदेश }




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